छठ महापर्व, जो चार दिनों तक चलने वाला सबसे पवित्र त्योहारों में से एक है, नहाय-खाय के साथ आरंभ होता है। इसके दूसरे दिन ‘खरना’ का आयोजन होता है, जो पवित्रता और आत्मसंयम का प्रतीक है। इस वर्ष खरना 6 नवंबर, बुधवार को मनाया जा रहा है। खरना का समय शाम 5:29 से 7:48 बजे के बीच निर्धारित है। इस विशेष अवसर पर व्रती प्रसाद ग्रहण करती हैं और फिर से 36 घंटे के कठिन निर्जला उपवास की शुरुआत करती हैं, जो कि छठ पूजा के महापर्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
खरना का महत्व और विधि
खरना का शाब्दिक अर्थ है “शुद्धिकरण,” जो इस दिन की पवित्रता और उपवास की गंभीरता को दर्शाता है। इस दिन व्रती महिलाएं पूरे दिन उपवास रखती हैं, ताकि उनके तन और मन का शुद्धिकरण हो सके। खरना में केवल एक समय ही भोजन ग्रहण किया जाता है, जिसे व्रती स्वयं बनाती हैं और उसमें विशेष रूप से खीर, रोटी और गुड़ का प्रसाद होता है। प्रसाद का यह भोजन पूरे मनोभाव और शुद्धता के साथ तैयार किया जाता है, जिससे व्रती को शक्ति मिलती है और वे अगले दो दिनों के कठिन उपवास के लिए तैयार होती हैं।
खरना की विशेष तैयारी: आम की लकड़ी और नए चूल्हे का प्रयोग
खरना के प्रसाद में शुद्धता और परंपरा का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसे नए मिट्टी के चूल्हे पर तैयार करना शुभ माना जाता है। इस प्रक्रिया में आम की लकड़ी का प्रयोग होता है, क्योंकि इसे पवित्र और शुभ माना जाता है। बदलते समय के साथ कुछ व्रती अब गैस चूल्हे का भी उपयोग करते हैं, लेकिन परंपरागत रूप से आम की लकड़ी का ही उपयोग करने का रिवाज है। ऐसा माना जाता है कि आम की लकड़ी से बनने वाले प्रसाद में विशेष पवित्रता होती है जो व्रती को शुद्धिकरण की भावना से भर देती है।
व्रतियों के लिए प्रसाद का विशेष महत्व
खरना का प्रसाद बनाते समय शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस प्रसाद में विशेष रूप से गुड़ से बनी खीर, रोटी, और फल शामिल होते हैं। व्रती प्रसाद बनाने के बाद इसे पूरे भक्ति-भाव से ग्रहण करती हैं। यह माना जाता है कि इस दिन ग्रहण किया गया प्रसाद अगले दिन की पूजा और उपवास की शक्ति को बढ़ाता है और व्रती को आत्मिक संतोष मिलता है। खरना के प्रसाद का स्वाद और उसकी पवित्रता अनोखी होती है, जो परिवार के अन्य सदस्य भी ग्रहण करते हैं।
खरना के बाद शुरू होता है निर्जला उपवास
खरना की पूजा और प्रसाद ग्रहण करने के बाद व्रती 36 घंटे का निर्जला व्रत आरंभ करती हैं। इस उपवास के दौरान वे अन्न और जल का सेवन नहीं करतीं और छठ माता के प्रति अपनी भक्ति और आस्था का प्रदर्शन करती हैं। यह निर्जला उपवास न केवल शारीरिक धैर्य को परखता है, बल्कि मानसिक शक्ति को भी मजबूती प्रदान करता है। व्रती इस दौरान मानसिक और आत्मिक शुद्धता का अनुभव करती हैं।
अस्ताचलगामी और उदीयमान सूर्य को अर्घ्य का महत्व
छठ महापर्व के तीसरे और चौथे दिन क्रमशः अस्ताचलगामी सूर्य (सूर्यास्त के समय) और उदीयमान सूर्य (सूर्योदय के समय) को अर्घ्य देने की परंपरा है। व्रती महिलाएं गंगा, नदियों, तालाबों या किसी भी जलाशय के किनारे जाकर सूर्य को अर्घ्य देती हैं। इस क्रिया का प्रतीकात्मक अर्थ होता है कि सूर्य देव की कृपा से जीवन में शांति, समृद्धि और संतान सुख प्राप्त होता है। यह पर्व इसीलिए अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है।
छठ महापर्व का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
छठ महापर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह पर्व भारतीय संस्कृति और परंपरा में परिवार, समुदाय और प्रकृति के साथ सामंजस्य की भावना को भी प्रकट करता है। खरना के दिन परिवार और समुदाय के लोग एकत्र होते हैं, प्रसाद का आनंद लेते हैं और परंपराओं का पालन करते हैं। यह पर्व सामूहिकता और आपसी सहयोग की भावना को प्रकट करता है। समाज में शुद्धता, आत्मसंयम, समर्पण और भक्ति की भावना को बनाए रखने में छठ का महत्वपूर्ण योगदान है।
छठ महापर्व का दूसरा दिन, खरना, व्रतियों के लिए एक महत्वपूर्ण दिन होता है, जिसमें वे शुद्धिकरण की भावना से खुद को परिपूर्ण करती हैं। यह दिन तन, मन और आत्मा की पवित्रता को उजागर करता है। खरना का प्रसाद ग्रहण करने के बाद व्रती अगले दो दिनों के लिए कठिन निर्जला उपवास शुरू करती हैं, जो छठ महापर्व के प्रति उनकी गहरी आस्था और श्रद्धा को दर्शाता है। इस उपवास के माध्यम से वे सूर्य देव और छठी मैया का आशीर्वाद प्राप्त करती हैं और अपने परिवार और समाज की खुशहाली के लिए प्रार्थना करती हैं।